अबकी बार छुट्टी कुछ लम्बी हो गई।
१६-०४-२०२०

सूने गलियारे, सूने आँगन, सूने हैं सब दरो-दरवाज़े।
इंतज़ार है कि बस आ जाए, कहीं से कोई आवाज़ें।
पूछती है ये झूला बाड़ी, पूछ रही है क्यारी-क्यारी,
कहाँ है वो खनखनाती हुई किलकारी?
नन्हें पैरों से घास को छूने का वह कोमल एहसास,
जैसे धीमे से कहना चाहता हो कुछ ख़ास।
वो हँसना-खिलखिलाना, वो रूठना,वो मानना,
वो एक-दूसरे के पीछे बेतहाशा दौड़ते चले जाना।
कितने अहसास छिपे हैं, इन खम्बों और दीवारों में,
फूल तो अब भी खिले है, पर वो बात कहाँ नज़ारों में।
देखा है मैंने बचपन को जवानी में बदलते,
और देखा है दुश्मनी को दोस्ती में ढलते ।
किसी को आँखों -आँखों में इशारे करते,
तो किसी को दौड़ कर गले मिलते।
वो हँसना, वो रोना, वो झगड़े, वो लड़ाई,
और इन सब के बीच वो कमबख़्त पढ़ाई।
सुना है वो तो चल रही है अब भी कुछ ऐसे,
जिस्म से रूह निकाल ली हो किसी ने जैसे।
अब इंतज़ार है इन मैदानों को, इन दलानो को,
इन कक्षाओं को, इन बगीचों और इन पायदानों को।
छुट्टी तो गरमी की हर साल होती थी,
पर अबकी बार कुछ लम्बी हो गई।
बच्चों के बचपन पर 'कोरोना' की पाबंदी हो गई।

- अनुराधा राय
हिन्दी अध्यापिका -वसंतवैलीस्कूल

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